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माँ, आखिर माँ ही होती है !

उस दिन ट्रेन चार घंटे देरी से चल रही थी। सोनू वैसे ही घर से लड़-लड़ा कर निकला था, सो मम्मी ने जो पराँठे बना के रखे थे वो भी वह गुस्से में अपने बेग से निकाल कर चोरी-छिपे धीरे-से फ़्रिज पर रख आया था।
चूँकि नाराज़गी घरवालों से थी पेट से तो नहीं; सो स्टेशन से चिप्स, बिस्किट के एक-दो पैकेट ले लिये थे और आधे लीटर की एक कोल्डड्रिंक की बोतल भी।
किनारे की सिंगल सीट पर वो खिड़की की मोटी-आढ़ी लोहे की जालियों में मुँह घुसाए बैठा था और ठंडी हवा का आनंद ले रहा था जो उसके बालों को तितर-बितर कर रही थी। अभी उसका गंतव्य आने में सात-आठ घंटे थे और अब उसे रह-रह कर भूख लग रही थी जो बढ़ते वक़्त के साथ और बढ़ती जा रही थी। चूँकि वो जनरल का डिब्बा था तो उजाला होने तक आने वाले चने, उबले बेर, भेलपूरी और दस के दो समोसे वाले भी अब अपना सारा माल बेच चुके थे और उस डिब्बे में नहीं थे।
जब ये सब आवाज़ लगा रहे थे, आ-जा रहे थे तब वो कान में इयरफ़ोन लगा चिप्स-बिस्किट, कोल्डड्रिंक के मज़े ले रहा था। अब कोई बड़ा स्टेशन भी नहीं आना था जहाँ से वो कुछ और खाने को ख़रीद सकता था।
बगल की लंबी सीट पर शायद कोटा-बारां से कुछ ग्रामीण परिवेश के लोग बैठे हुए थे जो लगातार बीड़ी पी रहे थे और हवा के साथ उनके कपड़ों और शरीर से आने वाली गंध ये चीख-चीख कर बता रही थी कि वो बकरी चराने वाले गढ़रिये थे, जिनके सिर पर रंगीन पगड़ी थी, कानों में बाली, सफ़ेद कुर्ता-धोती, मोटी-मोटी लंबी घुमावदार मूँछें थीं और हाथ में थे लट्ठ जो नीचे पड़े थे, कुछ बर्थ से किनारे टिके हुए थे।
रात हो चली थी और रात के खाने का वक़्त था तो उन्होंने सफ़ेद गमछे और साड़ी के रंग-बिरंगे चौकोर टुकड़ों में लिपटी अपनी खाने की गठरियों को खोलना शुरू किया, आगे का खेल खुली हुई खिड़कियों से आती हवा ने कर दिया।
पूड़ी और आम के पुराने अचार की गंध, जंगल की आग की तरह पूरे डिब्बे में फैल गयी और उस तीव्र गंध ने बाकी जनरल बोगी में आने वाली अच्छी-बुरी सभी गंधों को चारों खाने चित कर दिया। अब मानो पूरे डिब्बे में राज सिर्फ़ पूड़ी-अचार की ख़ुशबू का ही था।
उनके गठरी खोलने का असर किसी महामारी-सा हुआ। डिब्बे में बैठे सभी लोगों ने एक-एक कर अपना-अपना खाना निकाल कर खाना शुरू कर दिया। आमने-सामने बैठे कुछ लोग एक-दूसरे से औपचारिक रूप से पूछते-
"भाईसाहब, खाना खा लो,"
"आप भी खाना खा लो,"
"लो बेटा एक पराँठा ले लो। शरमा रहे हो?"
"एक पूड़ी ले लो अचार से," ऐसे बातें चल पड़ी थीं।

खाना खाने पर मुँह से आने वाली चप-चप की आवाज़ सोनू के कानों में भी पड़ रही थी। अब उसकी भूख का कोई ठिकाना ना था जो बेकाबू हो रही थी। खाली पेट गुड़गुड़ाने लगा था। उसने अपने इयरफ़ोन की आवाज़ को फ़ुल कर दिया, वो बार-बार पानी पीता और बीच-बीच में उठ कर गेट पर चला जाता फिर वापस अपनी सीट पर बैठ जाता।
उसे उन गाँव के लोगों पर गुस्सा आ रहा था। वो मन ही मन सोच रहा था कि कैसे स्वार्थी लोग हैं; मैं भूखा बैठा हूँ फिर भी मुझसे खाने को नहीं पूछ रहे हैं। इतनी पूड़ी-सब्जी है कि दो दिन तक एक आदमी पेट भर खा ले फिर भी! उसे कभी लगता कि वो माँग ले पर संकोच की स्याह परछाई उसके मन को घेर लेती। ट्रेन चलने के इतनी देर हो जाने के बाद भी अब तक बात तो नहीं की थी उनमें से किसी से, तो किस मुँह से कुछ माँगता कुछ।
मोबाइल के नेटवर्क ने भी साथ छोड़ दिया था उसका। अब वो खाली पेट कुकड़ा हुआ सा ऊपर की बर्थ पर लेटकर नीचे देखने लगा। पर उसे लग रहा था मानो सम्पूर्ण ब्रह्मांड-सकल सृष्टि सिर्फ़ भोजन ही कर रही हो, डिब्बे में किनारे-किनारे नीचे रेंगने वाले चूहे भी नीचे गिरे भोजन को उठा के यहाँ-वहाँ दौड़ लगा रहे थे। कुछ चूहे वहीं पैरों में बैठे-बैठे खा रहे थे।
अचानक से मोबाइल में मेसेज आने शुरू हुए, मतलब की अब मोबाइल कवरेज छेत्र में था। सोनू व्हाट्सएप और फ़ेसबुक के मैसेज चेक करने लगा। अचानक फ़ोन की घंटी बजी।
नंबर 'घर मोबाइल' नाम से था, यानी कि घर से। सोनू नाराज़ था। फ़ोन पर हरे, काले और भूरे रंग के तीन गोले थे जिसमें से हरा गोला ज़्यादा उचक रहा था। उसे टच करते ही फ़ोन उठ जाता पर सोनू ने दो बार उलटे हाथ की तरफ़ वाले लाल गोले को ऊँचा उचका दिया, जिस से फ़ोन दो बार कटा। उसे पता था कि ये मम्मी का फ़ोन है तो नाराज़गी जताने के लिए वो फ़ोन उठाना ही नहीं चाह रहा था। पाँच मिनट बाद एक फ़ोन और आया जो 'जियो मम्मी' के नाम से था।
इस बार उसने बेमन से फ़ोन उठा लिया और बोला, "हाँ, क्या है? बोला ना, मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी। फ़ोन रखो आप!" कुछ और बोलता उससे पहले मम्मी ने वहाँ से बात काटी और बोली, "तुझे मेरी कसम, मेरा मरा मुँह देखेगा तू अगर बात नहीं सुनी मेरी तो।" सोनू को मरे मुँह की कसम से बहुत डर लगता था, सो अब वो इसके आगे कुछ ना कह सका। मम्मी ने सीधा पूछा, "खाना खा लिया क्या तूने?" ज़वाब आया, "हाँ चिप्स-बिस्कुट खा लिये थे। दोपहर में खाना कहाँ से खाऊँ? फ़्रिज पर टिफ़िन रख आया था गुस्से में, आप लोग खा लेना उसे वर्ना खराब हो जायेगा," एक थका-हारा हुआ ज़वाब आया।
मम्मी बोली, "सुन, तेरा बेग कहाँ रखा है? उठा उसे।"
बेग सामने की ऊपर वाली बर्थ पर बेतरतीब, बेसुध पड़ा हुआ था। उसने बेमन से बेग उठाया। भूख से वो वैसे ही चिड़चिड़ा रहा था। वो बोला, "हाथ में है बेग। बोलो अब क्या करूँ इसका मैं? कपड़ों के अलावा है क्या इसमें? कोई नहीं ले जा रहा सड़ा-सा बेग।" मम्मी बोली, "बेग में कपड़ों के नीचे टिफ़िन रखा है। तू तो ऐसे ही छोड़ गया था। माँ हूँ तेरी, मन नहीं मानता, जब तू जूते पॉलिश कर रहा था तभी रख दिया था टिफ़िन धीरे-से। मुझे पता है, तुझसे पाँच मिनट भी भूख सहन नहीं होती। सुन! आम का नया अचार, जीरामन, पूड़ी और आलू की सूखी सब्जी है। खा ले अब चुपचाप। और हाँ, फ़िल्टर के पानी की बोतल भी है। फ़ालतू में मत खरीदना।" वो सुनता जा रहा था और बेग टटोल कर देखे जा रहा था।
उसमें बहुत उम्दा पैकिंग में एक हल्दीराम की मिठाई वाला डिब्बा भी रखा हुआ था। अब वो कुछ कहने की स्तिथि में नहीं था। उसका गला रूँध गया था। वो बस दबी आवाज़ में 'ठीक है, खाता हूँ खाना' ही कह पाया और तुरंत फ़ोन फ़्लाइट मोड पर डाल दिया।
अब बारी दिल और आँखों की थी। वो आँखें बह निकलीं। थोड़ा-थोड़ा करके कुनकुने से आँसू नीचे रखे टिफ़िन पर गिर रहे थे, जिन्हें उसने यूँ पोछा मानो खाने से पहले हाथ धो रहा हो। जब ट्रेन में सब लोग खाना खाकर सुस्त हो चले थे और सोने के लिये जगह बना रहे थे, तब वह फुर्ती-से सलीके से पैक किया हुआ टिफ़िन खोल रहा था।
शुरू में एक-एक पूड़ी दो-दो निवालों में खत्म हुई जा रही थी, अब जो अचार की गंध थी वो घरेलू थी, माँ के हाथ की, जो उसे बिना रुके उसके पसंद की नमकीन पूड़ी खाने दे रही थी। एक, दो, तीन... आठ-दस पूड़ी वो यूँ ही खा गया। शायद पाँच मिनट से भी कम में। अभी भी चार-पाँच पूड़ी बची थीं, जो अब उसने पैक कर के रख दी थीं। अब वह भरे पेट, सुकून की नींद सो सकता था और वहाँ घर पर उसकी माँ भी।
बेग की आगे की बड़ी जेब में मम्मी का गर्म शॉल भी था, जो शायद वो रखना भूल गया था। वो हलकी-सी ठण्ड में उसे गर्म बनाये रखने को काफ़ी था। नीचे बर्थ पर कीपेड वाले चाइना के मोबाइल पर तेज़ आवाज़ में गाना भी बज रहा था जो कानों को तकलीफ़ ना देते हुए सुकून दे रहा था, जिसे सुनते हुए सोनू धीरे-धीरे नींद के आगोश में जा रहा था।

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