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#ससुराल_ससुराल_होता_है_घर_नही




ससुराल में वो पहली सुबह आज भी याद है...!!
कितना हड़बड़ा के उठी थी,
ये सोचते हुए कि देर हो गयी है और सब ना जाने क्या सोचेंगे ?

एक रात ही तो नए घर में काटी है और इतना बदलाव, जैसे आकाश में उड़ती चिड़िया को, किसी ने
सोने के मोतियों का लालच देकर, पिंजरे में बंद कर दिया हो।

शुरू के कुछ दिन तो यूँ ही गुजर गए।
हम घूमने बाहर चले गए।
जब वापस आए, 
तो सासू माँ की आंखों में खुशी तो थी, 
लेकिन बस अपने बेटे के लिए ही दिखी मुझे।

सोचा, शायद नया - नया रिश्ता है, एक दूसरे को समझते देर लगेगी, लेकिन समय ने जल्दी ही एहसास करा दिया कि मैं यहाँ बहु हूँ। 
जैसे चाहूं वैसे नही रह सकती।

कुछ कायदा, मर्यादा हैं, जिनका पालन मुझे करना होगा। धीरे - धीरे बात करना, धीरे से हँसना, सबके खाने के बाद खाना, ये सब आदतें, जैसे अपने आप ही आ गयीं...

घर में माँ से भी कभी - कभी ही बात होती थी, धीरे - धीरे पीहर की याद सताने लगी। 

ससुराल में पूछा, तो कहा गया -अभी नही, कुछ दिन बाद!

जिस पति ने कुछ दिन पहले ही मेरे माता पिता से, 
ये कहा था कि पास ही तो है, 
कभी भी आ जायेगी, 
उनके भी सुर बदले हुए थे।

अब धीरे - धीरे समझ आ रहा था, कि शादी कोई खेल नही। 
इसमें सिर्फ़ घर नही बदलता, बल्कि आपका पूरा जीवन ही बदल जाता है।

आप कभी भी उठके, 
अपने मायके नही जा सकते। 
यहाँ तक कि कभी याद आए, 
तो आपके पीहर वाले भी,
बिन पूछे नही आ सकते।

मायके का वो अल्हड़पन, 
वो बेबाक हँसना,
वो जूठे मुँह रसोई में कुछ भी छू लेना, 
जब मन चाहे तब उठना, 
सोना, नहाना, 
सब बस अब यादें ही रह जाती हैं।

अब मुझे समझ आने लगा था, 
कि क्यों विदाई के समय, सब मुझे गले लगा कर रो रहे थे ? 

असल में मुझसे दूर होने का एहसास तो उन्हें हो ही रहा था, लेकिन एक और बात थी, 
जो उन्हें अन्दर ही अन्दर परेशान कर रही थी,

कि जिस सच से उन्होंने मुझे इतने साल दूर रखा, 
अब वो मेरे सामने आ ही जाएगा।
पापा का ये झूठ कि मैं उनकी बेटी नही बेटा हूँ, 
अब और दिन नही छुप पायेगा।

उनकी सबसे बड़ी चिंता ये थी, अब उनका ये बेटा, 
जिसे कभी बेटी होने का एहसास ही नही कराया था, 
जीवन के इतने बड़े सच को कैसे स्वीकार करेगा ?

माँ को चिंता थी कि उनकी बेटी ने कभी एक ग्लास पानी का नही उठाया , 
तो इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी कैसे उठाएगी?

सब इस विदाई और मेरे पराये होने का मर्म जानते थे, सिवाये मेरे। इसलिए सब ऐसे रो रहे थे, 
जैसे मैं डोली में नहीं, अर्थी में जा रही हूँ।

आज मुझे समझ आया, 
कि उनका रोना ग़लत नही था। हमारे समाज का नियम ही ये है, एक बार बेटी डोली में विदा हुयी, तो फिर वो बस मेहमान ही होती है।

फिर कोई चाहे कितना ही क्यों ना कह ले, 
कि ये घर आज भी उसका है ? 
सच तो ये है, 
कि अब वो कभी भी, 
यूँ ही अपने उस घर, 
जिसे मायका कहते हैं,
नही आ सकती...!!



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