#बेटी_और_बुआ
#ये_कहानी_नहीं.....?
कल फोन आया था ,
वो एक बजे ट्रेन से आ रही है..!
किसी को स्टेशन भेजने की बात चल ऱही थी
आज रिया ससुराल से.. दूसरी बार दामाद जी के साथ.. आ रही हैं ,
घर के माहौल में
एक उत्साह सा महसूस हो रहा हैं
इसी बीच .....एक तेज आवाज आती हैं ~
"इतना सब देने की क्या जरूरत है ??
बेकार फिजूलखर्ची क्यों करना ??
और हाँ आ भी रही है तो कहो
कि टैक्सी करके आ जाये स्टेशन से।"
(बहन के आने की बात सुनकर अश्विन भुनभुनाया )
माँ तो एक दम से सकते में आ गई
कि आखिर यह हो क्या रहा हैं ????
माँ बोली .....
"जब घर में दो-दो गाड़ियाँ हैं
तो टैक्सी करके क्यों आएगी मेरी बेटी ??
और दामाद जी का कोई मान सम्मान है
कि नहीं ???
पिता जी ने कहा कि..
ससुराल में उसे कुछ सुनना न पड़े।
मैं खुद चला जाऊंगा उसे लेने,
तुम्हे तकलीफ है तो तुम रहने दो।"
पिता गुस्से से.. एक सांस में यह सब बोल गए !!
"और ये इतना सारा सामान का खर्चा क्यों?
शादी में दे दिया न।
अब और पैसा फूँकने से क्या मतलब।"
अश्विन ने बहन बहनोई के लिए आये कीमती उपहारों की ओर देखकर ताना कसा ....
पिता जी बोले बकवास बंद कर !
"तुमसे तो नहीं माँग रहे हैं।
मेरा पैसा है,
मैं अपनी बेटी को चाहे जो दूँ।
तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या
जो ऐसी बातें कर रहे हो।"
पिता फिर से गुस्से में बोले।
अश्विन दबी आवाज में फिर बोला -
"चाहे जब चली आती है मुँह उठाये।"
पिता अब अपने गुस्से पर
काबू नही कर पाये और चिल्ला कर बोले
"क्यों न आएगी ????
हाँ इस घर की बेटी है वो।
तभी.. माँ भी बीच में टोकते हुए वोलीं -
मेरी बेटी हैं वो ,
ये उसका भी घर है।
जब चाहे जितने दिन के लिए चाहे
वह रह सकती हैं।
बराबरी का हक है उसका।
आखिर तुम्हे हो क्या गया है ?
जो ऐसा अनाप-शनाप बके जा रहे हो।"
अब बारी.. अश्विन की थी ...
"मुझे कुछ नही हुआ है.. माँ !!
आज मैं बस वही बोल रहा हूँ
जो आप हमेशा बुआ के लिए बोलते थे।
आज अपनी बेटी के लिए..
आज आपको बड़ा दर्द हो रहा है
लेकिन.. कभी दादाजी के
दर्द.. के बारे में सोचा है?????
कभी बुआ की ससुराल और
नहीं सोची ???
माँ और पिता जी एक दम से सन्नाटे में चले गए ...
अश्विन लगातार बोल जा रहा हैं
"दादाजी ने कभी आपसे एक धेला नहीं मांगा
वो खुद आपसे ज्यादा सक्षम थे
फिर भी आपको बुआ का आना,
दादाजी का उन्हें कुछ देना
नहीं सुहाया....क्यों ???
और हाँ बात अगर बराबरी और हक की ही है
तो आपकी बेटी से भी पहले
बुआ का हक है इस घर पर।"
अश्विन की आवाज आंसूओ की भर्रा सी गई थी अफसोस भरे स्वर में बोला।
माँ-पिता की गर्दन शर्म से नीची हो गयी
पर अश्विन नही रूका
"आपके खुदगर्ज स्वभाव के कारण
बुआ ने यहाँ आना ही छोड़ दिया।
दादाजी इसी गम में घुलकर मर गए ...
और हाँ में खुद जा रहा हूँ स्टेशन
रिया को लेने पर मुझे आज भी खुशी है कि
मैं कम से कम आपके जैसा
खुदगर्ज भाई तो नहीं हूँ।"
कहते हुए अश्विन कार की चाबी उठाकर
स्टेशन जाने के लिए निकल गया।
पिता आसूँ पौंछते हुए अपनी बहन सरिता को फोन लगाने लगे।
दीवार पर लगी.. दादाजी की तस्वीर जैसे मुस्कुरा रही थी।
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